इंडिया का एक छोटा सा मेला ।

भारतीय मेला नाकि सिर्फ देश की संस्कृति बल्कि भारत की कई पहलुओं को दिखाता है। कई रंग , कलाकृतियां , अलग-अलग राज्यों से आये लोग और उनकी विशेषतएं को बताता है। लखनऊ महोत्सव का नाम अपने सुना ही होगा अगर लखनऊ के वासी नहीं भी हैं तो भी। अलग राज्यों से लोग अपना कारोबार लेकर आते हैं ताकि ज़्यादा से ज़्यादा लोग खरीदी करें और उनके बनाये हुए प्रोडक्ट्स उसे करें साथ ही साथ उनके तरफ से संस्कृति भी आगे बढ़ सके। सवाल ये आता है की आखिर मेले के शुरुवात हुई कहाँ और भारत में पहले मेला आखिर कब लगा ? विकिपीडिया की मानें तो प्रयागराज में सबसे पहला 'कुम्भ मेला' 1870 में लगा और तभी से कुम्भ मेले में करोड़ों लोगों ने मौजूदगी दिखाई। सिर्फ भारत के ही नहीं बल्कि दुनिया से लोग आज भी इस मेले में शिरकत करते हैं। इस मेले के परंपरा के अनुसार स्नान के लिए बड़े पैमाने पर लोग आते हैं। स्नान को शाही स्नान या राजयोगी स्नान से नाम जाना जाता है। स्नान अनुष्ठान की प्रेरणाएँ कई हैं। सबसे महत्वपूर्ण मान्यता यह है कि कुंभ मेला स्थलों के लिए तीर्थ (तीर्थ) और फिर इन पवित्र नदियों में स्नान करने का एक उद्धार मूल्य है, मोक्ष - पुनर्जन्म के चक्र ( संसार ) से मुक्ति का एक साधन। तीर्थयात्रियों द्वारा स्नान अनुष्ठान प्रयागवाल पुजारी या शायद एक साधारण निजी डुबकी द्वारा सहायता प्राप्त हो सकता है। सहायता मिलने पर, अनुष्ठान मुंडन (सिर का मुंडन), फूल, सिंदूर (सिंदूर), दूध या नारियल जैसे प्रसाद के साथ प्रार्थना के साथ-साथ श्राद्ध (अपने पूर्वजों के सम्मान में प्रार्थना) के साथ शुरू हो सकते हैं। अधिक विस्तृत समारोहों में एक पुजारी के नेतृत्व में एक यज्ञ (होमा) शामिल है। आज भी कुम्भ मेला को बड़े धूम धाम से मनाया जाता है। npr.org के एक रिपोर्ट की मानें तो 2019 में करीबन 15 मिलियन लोगों ने कुम्भ मेले में शामिल हुआ थे। इसीलिए कुम्भ मेले दुनिया का सबसे बड़ा मेला मन जाता है।  
  
हालही में लखनऊ में भारत महोत्सव का आयोजन हुआ था। वैसे तो काफी पढ़ा अखबार में और इंस्टाग्राम पर भी इसकी खूब चर्चा थी। सोचा की जाना काफ़ी मज़ेदार होगा। इन सोशल मीडिया पर मार्केटिंग इतनी ज़बरदस्त है की आपकी नज़रें ही नहीं हटेंगी जो मन में बैठ गया वहां तो जाना ही है। यही 25 दिसम्बर को हम एक नयी जगह गौए लखनऊ के और वहां से लौट ही रहे थे की इस महोत्सव की चका चौंध को देखा। जो छोटी सी फेयरी लाइट्स पूरे सड़क के साथ मिलकर अपने बारे में बता रही थी। हमसे रहा न गया और हम बस चल दिए उस तरफ।
एंट्री पर कुछ टिकट्स थे और पार्किंग में भी टिकट्स लग रहे थे। शुरुवात में ही बच्चों का कम्पटीशन था , कुछ न डांस , किसी ने अपनी संगीत की कला का प्रदर्शन किया। कुछ स्टाल्स भी लगे हुए थे कहीं खाने के तो कहीं खिलौनों के। वो खाली सी अकेली सी मैदान की सड़कें बता रही थीं की उनके अकेला चोर दिया गया है और कोई यहाँ आना चाहता ही नहीं शयद अच्छी सी फोटो खींचने वाली जगह जो नहीं थी। कुछ खासा बिक्री नहीं हुई थी स्टाल्स पर , सभी स्टाल्स भरे से थे , खाने पीने की जगह पर कोई नहीं था। पिंक कैंडीज और नान खटाई जैसे कुछ स्टाल्स लगे हुए थे। आगे जाते ही राइड्स थे और बड़े बड़े झूले। कौन देखना चाहता है इन छोटे से मेलों को जब बड़े बड़े रेस्टोरेंट्स और 'लाउन्ज' शहर में जो खुल गायें और फिर सोशल मीडिया पर भी तो दिखाना है की हम कितनी बड़ी जगह जाते हैं। शोऑफ के जमने में मेले को कौन पूछेगा भला शयद इसीलिए मैंने फोटो भी नहीं ली की लोग क्या सोचेंगे की 'ये मेले देखने जाती ह। ' आज कल की बॉलीवुड मूवीज भी मेले दिखती कहाँ है। 'एक्शन रीप्ले' फिल्म ने मेले की अच्छी झलक दिखाई है। वैसे आज की फिल्में भी फॉरेन लोकेशंस पर बनाई जाती हैं। आने वाली फिल्म 'पठान' भी फॉरेन लोकेशन पर शूट की गयी है। इन्ही फिल्मों से बाहरी लोकेशंस इंडिया में छुट्टियों के लिए काफी फेमस हो रही हैं। कुछ न हो लेकिन सेलेब्रटीज़ जो करते हैं लोग उन् चीज़ों ज़रूर अपनाते हैं चाहे घूमना हो , फैशन हो , खाना पीना , ब्यूटी प्रोडक्ट्स से लेकर सब कुछ शायद जागरूकता की कमी की वजह से। हालही में एक सीरीज देखि जिस में बहुत ही अच्छा डायलाग था जो एक पिता ने अपने छोटे से बेटे से कहा 'अगर तुम पढोगे नहीं थो कोई भी तुम्हे गुमराह कर लेगा। ' चाहे तो हम इस बात से सहमत हो सकते हैं , मैं तो हूँ।  


आज भी देश से मेले की संस्कृति गयी नहीं है। कृषि मेले जोकि कर्नाटक में हुआ। करीबन 15 लाख़ से भी ज़्यादा लोगों ने शिरकत की। नाशिक और उज्जैन में भी आज भी मेले का आयोजन होता है। क्या आपको लगता लोग उतना ही इन संस्कृति के कार्यक्रमों में हिस्सा केते हैं जितना की किसी म्यूजिशियन की concert में ? westernization और Globalization ने ट्रेड , बिसनेस, प्रॉफ़िट्स, इंवेस्टमेंट्स , सस्ती चीज़ों को तो आसान कर दिया है लेकिन संस्कृति को ही उलझा दिया है। 'अतिथि देवो भाव' और 'शादी' ने अपनी relevance एंड importance खो रही हैं। भारतीय कल्चर ख़त्म होने के चपेट में है। क्या हम अपने घर को भूल जाते हैं ? क्या हम अपने रूट को भूल जाते हैं ? नहीं भूलते कभी। एक confusion सा है की क्या हमारा कल्चर है और क्या पराया और इसीलिए जागरूकता ज़रूरी है।  
जब में महोत्सव गयी तो एक लड़का बहुत ही दिल से डांस कर रहा था। मेरा मन था की मैं भी अपने आपको आज़मा लूँ पर उस प्रतियोगिता के लिए मैं थोड़ी बड़ी थी। तो बताइये की हम पूरी तरीके से westernize नहीं हो गए हैं ? क्या हमने रूट को खो नहीं दिया है ? मुझे तो लगता है, हाँ और आपको ?
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